एमसीआई की कार्यप्रणाली की जांच के लिए आर.एम. लोढ़ा समिति


सर्वोच्च न्यायालय ने 2 मई 2016 को एक ऐतिहासिक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति आर.एम. लोढ़ा को भ्रष्टाचार और विवादों से घिरी मेडिकल कौंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) की कार्य प्रणाली की समीक्षा करने का काम सौंपा है। इस समिति में पूर्व नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक विनोद राय और इंस्टिट्यूट ऑफ लीवर एंड बिलियरी साइंस के निदेशक डा. शिव सरन सदस्य हैं। एमसीआई देश में मेडिकल शिक्षा, दाखिले, फीस ढांचा और डाक्टरी पेशे को नियमित करने का काम करती है।
संविधान के अनुच्‍छेद 142 के तहत सर्वोच्च न्यायालय को दिए गए अधिकार का इस्तेमाल करते न्यायाधीश ए.आर. दवे की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यों की संविधान पीठ ने 2 मई को दिए फैसले में कहा कि केंद्र सरकार इस बारे में उचित अधिसूचना दो हफ्ते के अंदर जारी करेगी। संविधान के अनुच्‍छेद 142 सर्वोच्च न्यायालय को यह अधिकार देता है कि जब सरकार किसी दायित्व का निर्वहन करने में नाकाम रहती है तो सर्वोच्च न्यायालय उस पर फैसला सुना सकती है। इससे पहले सर्वोच्च न्यायालय ने इसी अधिकार का इस्तेमाल करते हुए उत्तर प्रदेश में लोकायुक्त नियुक्त किया था।
महत्वपूर्ण निर्णय
Ø  समिति एमसीआई के सभी कानूनी कार्यकलापों का परीक्षण कर सकेगी।
Ø  एमसीआई की सभी मंजूरियां और फैसले लोढ़ा समिति की संस्तुति के बिना लागू नहीं होंगे।
Ø  समिति कार्यकलापों में सुधार के लिए निर्देश जारी करने के लिए स्वतंत्र होगी।
Ø  समिति तब तक कार्य करेगी जब तक सरकार कोई दूसरा विकल्प तैयार नहीं करती है। वैसे शुरू में समिति का कार्यकाल एक वर्ष का होगा।
Ø  मेडिकल दाखिले की प्रक्रिया सरकार की देखरेख में ही होनी चाहिए।
Ø  इस फैसले से प्राइवेट कॉलेजों की स्वायत्तता पर कोई फर्क नहीं पडेगा। 
Ø  CET या फीस का मुद्दा अब तक राज्य के पास था लेकिन राष्ट्रीय पात्रता प्रवेश परीक्षा (NEET) के नोटिफिकेशन के बाद यह केंद्रीय कानून के तहत होगा।
Ø  अब यह मामला केंद्र और राज्य के बीच होगा जो अनुच्छेद 254 के तहत आपस में सुलाझाया जाएगा।
Ø   प्राइवेट कालेजों में दाखिलों के लिए सरकार के नामांकित लोग भी प्राइवेट कालेजों से जुड़े लोग होते हैं जिनका बड़ा व्यावसायिक हित होता है।
विदित हो कि केंद्र सरकार ने 2014 में एमसीआई की कार्यप्रणाली पर डॉ. रंजीत राय समिति बनाई थी जिसने अपनी रिपोर्ट 25 सितंबर 2014 को दी और मेडिकल पेशे के नियमितिकरण पर कई सुझाव दिए। इसमें ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट मेडिकल शिक्षा के नियमितिकरण के सुझाव भी थे। संसदीय समिति ने भी मार्च 2016 में दी अपनी रिपोर्ट में एमसीआई की खामियों की ओर इशारा किया था।
कारण
देश में मेडिकल शिक्षा की गुणवत्ता देश में इस वक्त सबसे निचले स्तर पर है, डॉक्टर देश की बुनियादी स्वास्थ्य जरूरतों को पूरा नहीं कर पा रहे हैं। एमसीआई अपने उद्देश्य के अनुसार जिम्मेदारियों पर खरा नहीं उतरी है। मेडिकल कॉलेजों से आ रहे छात्र कम संसाधनों वाले पीएचसी यहां तक कि जिला स्तर पर काम करने के लिए पूर्ण रूप से सक्षम नहीं हैं। एमबीबीएस डॉक्टर बुनियादी स्वास्थ्य सेवा करने में सक्षम नहीं हैं। अनैतिक व्यवहार के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। एमसीआई ने मेडिकल शिक्षा में सुधार के लिए कोई काम नहीं किया है।
एमबीबीएस शिक्षा की मौजूदा प्रणाली को फिर से देखने की जरूरत है। एमसीआई न तो पेशेवर उत्कृष्टता और न ही नैतिकता का प्रतिनिधित्व करती है। एमसीआई में केंद्र और राज्यों के प्रतिनिधि कॉर्पोरेट निजी अस्पतालों से होते हैं जो कि बेहमद कॉमर्शियल हैं। ये प्रतिनिधि भी पैसे कमाने के लिए असहाय मरीजों पर अनावश्यक निदान टेस्ट, सर्जरी और अनैतिक व्यवहार करते पाए गए हैं।

दाखिला प्रक्रिया संतोषजनक नहीं है क्योंकि निजी कॉलेजों में बहुतायत सीटें कैपिटेशन फीस लेकर दी जाती हैं। यह प्रणाली होनहार और गरीब छात्रों को बाहर ही रखती है। पारदर्शी व्यवस्था के अभाव में पीजी सीटें बेची जाती हैं। कॉलेजों की मौजूदा निरीक्षण प्रणाली त्रु़टिपूर्ण है।

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