टी.बी. हारेगा, देश जीतेगा अभियान



विश्व टी.बी. दिवस पर एक कार्यक्रम के दौरान केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री श्री जे.पी. नड्डा ने टी.बी. हारेगा, देश जीतेगा (TB Harega, Desh Jeetega) अभियान पेश किया। स्वच्छ भारत और स्वस्थ भारत अभियान के तहत टी.बी. मुक्त भारत का लक्ष्य बनाया गया है। टी.बी. मुक्त भारत अभियान के साथ अमिताभ बच्चन को भी जोङा गया है।

विश्व में इस बीमारी के लिहाज से 22 देश सर्वाधिक खतरे में हैं। यहां टी.बी. के सर्वाधिक नए मामले सामने आ रहे हैं। 22 देशों की इस सूची में भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका, नाइजीरिया व इंडोनेशिया आदि शामिल हैं। भारत टी.बी. के मामले में पूरी दुनिया में सबसे आगे है। टीबीग्रस्त नए मरीजों में करीब 3.6 प्रतिशत मरीज मल्टी ड्रग रेजिस्टेंट (एमडीआर) यानी टी.बी. की गंभीर अवस्था से ग्रस्त हैं। लेकिन एमडीआर के 50 प्रतिशत मामले भारत व चीन में हैं। वहीं दूसरी तरफ विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर साल लगभग 23 लाख लोग टीबी की चपेट में आते हैं, जिनमें से लगभग 9 लाख टी.बी. रोगियों से फैले संक्रमण के कारण इसकी चपेट में आते हैं। इनमें से 3 लाख से ज्यादा लोगों की मृत्य हो जाती है।

टी.बी.
टी.बी.(T.B.) को तपेदिक ,यक्ष्मा और क्षय रोग के नाम से भी जाना जाता है। टी.बी. मायकोबेक्टिरियम ट्यूबरोक्युलोसिस नामक जीवाणु के कारण होता है। यह एक संक्रामक रोग है। टी.बी. आनुवांशिक नहीं है। कोई भी व्यक्ति टी.बी. की चपेट में आ सकता है। जब सक्रिय टी.बी. से पीड़ित कोई रोगी खुले तरीके से खाँसता या छींकता है, तो टी.बी. पैदा करने वाले जीवाणु बाहर एरोसोल में प्रवेश कर जाते हैं। यह एरोसोल किसी भी ऐसे व्यक्ति को संक्रमित कर सकता है जो इसमें साँस लेता है। केवल एक रोगी पूरे वर्ष के दौरान 10 से भी अधिक लोगों को संक्रमित कर सकता है। कीटाणु के संक्रमण से मरने वालों में एचआईवी एड्स प्रथम एवं टुवरकुलोसिस दूसरे नंबर पर है। 
इसे फेफड़ों का रोग माना जाता है, लेकिन यह फेफड़ों से रक्त प्रवाह के साथ शरीर के अन्य भागों में भी फैल सकता है, जैसे हड्डियाँ, हड्डियों के जोड़, लिम्फ ग्रंथियां, आंत, मूत्र व प्रजनन तंत्र के अंग, त्वचा और मस्तिष्क के ऊपर की झिल्ली आदि। टी.बी.  के कीटाणु गाय, भैंस, भेड, बकरी या अन्य जानवरों का कच्चा दूध (बिना उबला या पाश्चरीकृत किए बिना) पीने से या कच्चे दूध से बने घी, पनीर आदि खाने से भी हो सकता है ।

विश्व टी.बी. दिवस
यह प्रत्येक 24 मार्च को पूरे विश्व में मनाया जाता है। क्योंकि 24 मार्च, 1880 को ही राबर्ट कोच ने बर्लिन फिजियोलोजिक सोसाइटी में आयोजित सेमिनार में ट्यूबरोक्युलोसिस अर्थात टी.बी. बैक्टीरिया की खोज के बारे में बताया था। 

कारण
मनुष्य की पाचन क्रिया के मन्द हो जाने पर भोजन का रस ठीक प्रकार से नहीं बन पाता या जो रस बनता है, वह थोड़ी मात्रा में होता है। फिर वह कफ के रूप में बदलकर रसवाहिनी नाड़ियों में रुक कर फेफड़ों की क्रियाशीलता रोक देता है, जिस कारण व्यक्ति को टी.बी. की शिकायत हो जाती है। रोग से प्रभावित अंगों में छोटी-छोटी गांठ अर्थात्‌ टयुबरकल्स बन जाते हैं। उपचार न होने पर धीरे-धीरे प्रभावित अंग अपना कार्य करना बंद कर देते हैं और यही मृत्यु का कारण हो सकता है।


रोग की पहचान
इस रोग में पहले श्वास फूलता है, खांसी होती है और धीरे-धीरे अग्नि मंद पड़ जाती है। रोगी की आंखों से नींद गायब हो जाती है। यह रोग वंश परम्परागत भी होता है। जहां धूल अधिक होती है तथा वायु और प्रकाश  की कमी होती है, वहां यह रोग बहुत जल्दी आक्रमण करता है। इसके अलावा अधिक मात्रा में शराब तथा मादक पदार्थों का सेवन करने से शरीर दुर्बल होकर टी.बी. का शिकार हो जाता है।

लक्षण
तीन सप्ताह से अधिक खांसी, बुखार जो खासतौर पर शाम को बढ़ता है, छाती में दर्द, वजन का घटना, भूख में कमी, बलगम के साथ खून आना, फेफड़ों का इंफेक्शन बहुत ज्यादा होना, सांस लेने में दिक्कत इस रोग के प्रमुख लक्षण हैं। यदि इनमें से कोई भी लक्षण तीन सप्ताह से अधिक अवधि तक बना रहे, तो पीड़ित व्यक्ति को नजदीकी डॉट्स टीबी केंद्र (DOTS TB Center) अथवा स्वास्थ केन्द्र जाना चाहिए और अपने कफ की जाँच करवानी चाहिए।
जाँच व इलाज
टी.बी. के निदान हेतु यह जरूरी है कि जीवाणु का पता लगाने के लिए लगातार तीन दिन तक कफ की जाँच करवाई जाए। यदि टी.बी. निरोधी दवा पूर्ण अवधि तक ली जाए तो यह रोग पूरी तरह ठीक हो जाता है। क्षयरोगी को कम से कम छ: महीने तक दवा लगातार लेनी चाहिए। कभी-कभी दवा को एक साल तक भी लेना पड़ सकता है। यह आवश्यक है कि केवल डॉक्टर की सलाह पर ही दवा लेना बंद किया जाए। वे रोगी, जो पूरी इलाज नहीं करवाते अथवा दवा अनियमित लेते हैं, उनके लिए रोग लाइलाज हो सकता है और यह जानलेवा भी हो सकता है। अपनी रुचि के अनुसार रोगी किसी प्रकार का भोजन ले सकते हैं। क्षयरोगी को बीड़ी, सिगरेट, हुक्का, तम्बाकु, शराब अथवा किसी भी नशीली वस्तु से परहेज करना चाहिए।

डॉट्स
टी.बी. की चिकित्सा हेतु डॉट्स (Directly Observed Treatment, Short Course, DOTS), अर्थात् सीधे तौर पर लिए जाने वाला छोटी अवधि का इलाज है। यह क्षयरोग की पहचान एवं चिकित्सा हेतु विश्वभर में प्राथमिक स्वास्थ केन्द्रों द्वारा अपनायी जाने वाली एक समग्र रणनीति का नाम है। इसमें टीबी के नियंत्रण के लिए सरकार की वचनबद्धता, टीबी के सक्रिय लक्षणों से युक्त रोगियों में थूक-स्मियर माइक्रोस्कोपिक परीक्षण, प्रत्यक्ष प्रेक्षण छोटे-कोर्स कीमोथेरेपी उपचार, दवाओं की एक निश्चित आपूर्ति, मानकीकृत रिपोर्टिंग और मामलों और उपचार के परिणामों की रिकॉर्डिंग शामिल है।
डॉट्स का ठीक प्रकार से उपयोग करने से उपचार की सफलता की दर 95 प्रतिशत से भी अधिक होती है और यह भविष्य में टीबी के कई दवाओं के प्रति प्रतिरोध के स्ट्रेंस (उपभेदों) (multi-drug resistant strains of tuberculosis) के विकास को भी रोकती है। डॉट्स का उपयोग टी.बी. के फिर से होने की संभावना को कम करता हैडब्ल्यूएचओ ने 1998 में MDR-TB के उपचार के लिए डॉट्स प्रोग्राम का विस्तार किया,जिसे डॉट्स-प्लस कहा जाता है

टीकाकरण
बैसिलस काल्मेट-गुएरिन (Bacille Calmette-Guérin, BCG) टीका बच्चों में टी.बी. के प्रसार को कुछ हद तक कम करता है। यह बचपन में फैले रोग पर प्रभावी है और फेफड़ों की टीबी के विरुद्ध असंगत संरक्षण प्रदान करता है।  दुनिया भर में यह सबसे व्यापक रूप से इस्तेमाल किया जाने वाला टीका है। इसके द्वारा प्रदान की गयी प्रतिरक्षा दस वर्षों के बाद घटने लगती है। टी.बी.  रोग की रोकथाम के लिए यह टीका युवाओं के लिए ज्यादा असरदार नही होता।
प्रतिरोधी टी.बी.  (Drug-resistant TB)
हाल के वर्षों में दवाओं के लिए प्रतिरोधी क्षयरोग’, जिसपर सामान्य टी.बी.   में दी जाने वाली एंटीबायोटिक का असर नहीं होता, के उत्पन्न होने से टी.बी.  एक बड़ी समस्या बन गया है।
ड्रग रजिस्टेन्ट टी.बी. कई तरह की होती है - मोनो ड्रग रजिस्टेन्ट टी.बी.,  मल्टी ड्रग रजिस्टेन्ट टी.बी. ,  पॉली ड्रग रजिस्टेन्ट टी.बी., एक्स.डी.आर. टी.बी. और टी.डी.आर. टी.बी.
ड्रग रजिस्टेन्ट टी.बी. के  होने के मुख्य कारण हैं
·          सही दवाईयों का इस्तेमाल न होना व गलत दवाईयों का लम्बे समय तक उपयोग।
·          दवाईयों का प्रयोग यदि अनियमित तरीके से किया जाये।
·          दवाईयाँ मरीज के शारीरिक वजन के मुताबिक न होकर कम मात्रा में चलाई गयी हों।
·          सही समय तक पूरा कोर्स न किया गया हो।
·          खराब गुणवत्ता वाली टी.बी. की दवाईयों का उपयोग करना।

राष्ट्रीय टी.बी. उन्मूलन कार्यक्रम
भारत सरकार ने टी.बी. पर नियंत्रण पाने के लिए सन 1962 में राष्ट्रीय टी.बी. नियंत्रण कार्यक्रम शुरू किया था। परंतु इसके बाद भी स्थिति में संतोषजनक परिणाम देखने को नहीं मिले। जबकि बढ़ते क्षय रोगियों की संख्या से सिर्फ  भारत ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व जूझ रहा था। इसे ध्यान में रखते हुए 1993 में डब्ल्यूएचओ ने टीबी को वैश्विक महामारी घोषित किया। इसके बाद राष्ट्रीय टी.बी. नियंत्रण कार्यक्रम का नाम राष्ट्रीय टी.बी. उन्मूलन कार्यक्रम कर दिया गया।


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