बाल साक्षरता में भारत की उल्लेखनीय प्रगति


जनवरी 2015 में यूनेस्को और यूनिसेफ द्वारा तैयार एक साझा रिपोर्ट "फिक्सिंग द ब्रोकन प्रॉमिस ऑफ एजुकेशन फॉर ऑल : फाइंडिंग्स फ्रॉम द ग्लोबल इनीशिएटिव ऑन आउट-ऑफ-स्कूल चिल्ड्रन" (Fixing the Broken Promise of Education for All-Findings from the Global Initiative on Out-of-School Children) जारी की गई। जिसमें पिछले एक दशक में विभिन्न राष्ट्रों में बाल साक्षरता में हुए सुधारों का आकलन किया गया है। रिपोर्ट के अनुसार, भारत ने बाल साक्षरता की दिशा में उल्लेखनीय प्रगति की है। यूनेस्को के महानिदेशक इरीना बोकोवा ने कहा कि यह रिपोर्ट हर बच्चों के लिए शिक्षा का मूलभूत अधिकार सुनिश्चित करने के लिए संसाधनों को संगठित करने की चेतावनी देती है।

रिपोर्ट के मुख्य बिंदु

भारतीय परिप्रेक्ष्य


v  साल 2000 से 2012 के बीच भारत में स्कूल न जाने वाले बच्चों की संख्या में 1.6 करोड़ तक की कमी आई है। हालांकि अब भी यहां 14 लाख बच्चे ऐसे हैं जो प्राथमिक स्कूल नहीं जाते। इनमें 18 प्रतिशत लड़कियां और 14 प्रतिशत लड़के थे। भारत में 5. 881 करोड़ लड़कियां और 6. 371 करोड़ लड़के प्राथमिक कक्षाओं के छात्रों की उम्र के हैं।
v  रिपोर्ट में कहा गया कि हालांकि भारत ने प्राथमिक शिक्षा में पंजीकरण करवाने के मामले में महत्वपूर्ण सुधार किया है, लेकिन शारीरिक अक्षमता वाले बच्चों के लिए ये संख्या स्तब्ध करने वाली है। भारत में शारीरिक अक्षमता वाले 29 लाख बच्चों में से 9.9 लाख बच्चों ऐसे हैं जो स्कूल नहीं जाते। छह साल से 14 साल के उम्र समूह वाले इन बच्चों की यह संख्या कुल संख्या का 34 प्रतिशत है। यह प्रतिशत उन बच्चों में कहीं अधिक है, जिन्हें कोई बौद्धिक अक्षमता (48 प्रतिशत), बोलने में परेशानी (36 प्रतिशत) और कई अन्य अक्षमताएं (59 प्रतिशत) हैं।
v  भारत में सात से 14 वर्ष के उम्र समूह के लगभग 14 प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं, जो बाल मजदूरी में लगे हैं।
v  रिपोर्ट में कहा गया , भारत ने अपनी शिक्षा व्यवस्था को ज्यादा समावेशी बनाने के लिए बहुत प्रयास किए हैं। शिक्षा का अधिकार कानून के जरिए सभी बच्चों को स्कूल जाने का अधिकार है। किसी तरह की अक्षमता का सामना कर रहे बच्चों की बड़ी संख्या को स्कूलों से जोड़ने की दिशा में और अधिक प्रगति वांछनीय है।

अन्य राष्ट्रों के संदर्भ में

Ø  स्कूल न जाने वाले बच्चों की संख्या में सबसे अधिक कमी दक्षिण एशिया में आई है। यहां 2000 से 2012 के बीच ऐसे बच्चों की संख्या में लगभग 2.3 करोड़ की कमी आई।
Ø  इस रिपोर्ट में ज्यादा बच्चों को स्कूलों तक लाने और यहां बनाए रखने के लिए स्कूल की फीस हटाए जाने, नकदी हस्तांतरण कार्यक्रम और स्कूलों में भोजन के कार्यक्रम आदि के प्रयासों को श्रेय दिया गया। स्कूल में भोजन की व्यवस्था लागू करने के सबसे बड़े कार्यक्रम को स्कूलों में पंजीकरण एवं उपस्थिति की दरों पर सकारात्मक प्रभाव डालने का श्रेय दिया गया है।
Ø  42 देश ऐसे थे, जो वर्ष 2000 और 2012 के बीच प्राथमिक कक्षाओं में स्कूल न जा पाने वाले बच्चों की संख्या को आधे से भी ज्यादा कम करने सफल रहे।इनमें अल्जीरिया, बुरुंडी, कंबोडिया, घाना, भारत, ईरान, मोरक्को, नेपाल, मोजांबिक, निकारागुआ, रवांडा, वियतनाम, यमन और जांबिया शामिल हैं।
Ø  कई देशों द्वारा इतनी प्रभावशाली प्रगति के बावजूद वर्ष 2012 में दुनिया भर में प्राथमिक स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की उम्र के लगभग नौ फीसद बच्चे ऐसे थे जो स्कूल नहीं जाते थे। इनमें लड़कों की संख्या इस उम्र के लड़कों की कुल संख्या का आठ फीसद थी और लड़कियों की संख्या इस उम्र की लड़कियों की कुल संख्या का 10 फीसद थी। स्कूल न जाने वाले बच्चों की कुल संख्या 5.8 करोड़ थी और इसमें 3.1 करोड़ लड़कियां थीं।
Ø  जिन देशों में स्कूल न जाने वाले बच्चों की संख्या पांच लाख से अधिक है, वे हैं- इंडोनेशिया, बांग्लादेश, नाइजीरिया, पाकिस्तान और सूडान।
Ø  रिपोर्ट के अनुसार, दुनियाभर में पांच किशोरों में से एक ऐसा है, जो स्कूल नहीं जाता। इसका अर्थ यह है कि 12 से 15 साल की उम्र के बीच लगभग 6.3 करोड़ युवा ऐसे हैं, जिन्हें शिक्षा का उनका अधिकार नहीं मिल रहा। ऐसा खासतौर पर इसलिए है क्योंकि वे हाशिए पर जीने वाले गरीब तबके से हैं।
Ø  वर्ष 2015 तक सभी के लिए शिक्षा हासिल करने के अंतरराष्ट्रीय समुदाय के वादे के बावजूद कुल 12.1 करोड़ बच्चों और किशोर या तो कभी स्कूल ही नहीं गए या उन्होंने बीच में ही स्कूल छोड़ दिया। रिपोर्ट में कहा गया कि वस्तुस्थिति बनाए रखना कारगर नहीं रहा और वर्ष 2007 के बाद से स्कूल न जाने वाले किशोरों की संख्या में कमी लाने में प्रगति न के बराबर रही।
Ø  आंकड़ों में पाया गया कि जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते जाते हैं, उनके स्कूल में कभी न जाने का या स्कूल छोड़ देने का जोखिम बढ़ जाता है। प्राथमिक शिक्षा के छात्रों की उम्र सीमा वाले वर्ग में 10 में से एक बच्चा स्कूल नहीं जाता जबकि किशोरों में हर पांच में से एक बच्चा स्कूल नहीं जाता।
Ø  किसी संघर्ष या भेदभाव का सामना करनेवाले या बालमजदूरी में लगे बच्चे सबसे ज्यादा प्रभावित वे होते हैं। नीतियों और संसाधनों में बड़े बदलाव लाए बिना शिक्षा के जरिए हासिल किए गए पिछले लाभ नष्ट हो सकते हैं। नीतियों में एक ठोस बदलाव के लिए यह अध्ययन सरकारों से अपील करता है कि वह समाज में हाशिए पर जी रहे बच्चों के बारे में मजबूत जानकारी उपलब्ध करवाए।
Ø  यदि नीतियों में बदलाव नहीं किया गया तो 2.5 करोड़ बच्चों :1.5 करोड़ लड़कियां और 1 करोड़ लड़के: शायद कभी भी कक्षा में कदम न रख पाएं।


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