भारत ई-कचरा उत्पादित करने वाला दुनिया का पांचवां देश



यूनाइटेड नेशंस युनिवर्सिटी (यूएनयू)  द्वारा तैयार ग्लोबल ई-वेस्ट मॉनीटर 2014 की रिपोर्ट के अनुसार भारत इलेक्ट्रानिक कचरा (ई-कचरा)  पैदा करने वाला दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा देश बनकर उभरा है। भारत ने 2014 में 17 लाख टन इलेक्ट्रॉनिक एवं इलेक्ट्रिकल उपकरण कचरे के रूप मे निकाले। वहीं, अमेरिका और चीन ने 2014 में सबसे अधिक ई-कचरा पैदा किया। ई- कचरा पैदा करने के मामले में अमेरिका पहले पायदान पर, चीन दूसरे, जापान तीसरे और जर्मनी चौथे पायदान पर रहा।

पिछले साल दुनिया में सबसे ज्यादा 1.6 करोड़ टन ई-कचरा एशिया में पैदा हुआ। इनमें चीन में 60 लाख टन, जापान में 22 लाख टन और भारत में 17 लाख टन ई-कचरा पैदा हुआ। वहीं यूरोप में सबसे अधिक ई- कचरा करने वाले देशों में नार्वे पहले, स्विट्जरलैंड दूसरे, आइसलैंड तीसरे, डेनमार्क चौथे और ब्रिटेन पांचवे पायदान पर रहा। वहीं सबसे कम 19 लाख टन ई-कचरा अफ्रीका महाद्वीप में पैदा हुआ। रिपोर्ट के मुताबिक, 2018 में ई-कचरे की मात्रा 21 प्रतिशत तक बढ़कर 5 करोड़ टन पहुंचने की संभावना है।

पिछले साल पैदा हुए ई-कचरा में महज सात प्रतिशत मोबाइल फोन, कैलकुलेटर, पीसी, प्रिंटर और छोटे आईटी उपकरण रहे, वहीं करीब 60 प्रतिशत हिस्सा घरों एवं कारोबार में इस्तेमाल होने वाले बड़े और छोटे उपकरणों जैसे वैक्युम क्लीनर, टोस्टर्स, इलेक्ट्रिक शेवर्स, वीडियो कैमरा, वाशिंग मशीन, इलेक्ट्रिक स्टोव आदि का था।

क्या होता है ई-कचरा 

ऐसा कोई भी वैद्युत या इलेक्ट्रॉनिक उपकरण जो पुराना, टूटा-फूटा, खराब या बेकार होने के कारण इस्तेमाल में ना हो या फेंक दिया गया हो उसे इलेक्ट्रॉनिक कचरा या ई-वेस्ट कहते हैं। ई-कचरा  मुख्यतः दो स्त्रोतों से आता है, जिनमें पहला इलेक्ट्रॉनिक कम्पोनेंट के निर्माण से है जैसे पी.सी.बी., अर्ध विद्युत चालक, संधारित्र, कैथोड-रे ट्यूब, पिक्चर ट्यूब, पी.वी.सी. या धातु की शीट आदि । दूसरा अनुपयोगी इलेक्ट्रानिक उपकरणों से छुटकारा पाने के दौरान । दोनों ही तरह के इलेक्ट्रॉनिक कचरे जैविक रूप से नष्ट नहीं होने योग्य यानी नॉन-बायोडिग्रेडेबल होते हैं। पहली स्थिति में निर्माण के दौरान प्रयोग में लाए गए विभिन्न रसायन अवयव, तो दूसरी स्थिति में अवैज्ञानिक तरीके से अनुपयोगी उपकरणों को नष्ट करने की प्रक्रिया से पर्यावरण प्रभावित हो रहा है ।

-कचरे का निपटान आजकल एक प्रमुख समस्या बन गया है। -कचरे में कई बहुमूल्य धातुएँ होती है जिनमें तांबा, सोना, चांदी और सीसा प्रमुख हैं। इनके अलावा यिट्रियम, यूरोपियम, डिसप्रोसियम जैसे तत्व भी इस कचरे में खूब होते हैं जिन्हें दुर्लभ मृदा कहते हैं। लेकिन इन बहुमूल्य तत्वों को कचरे में से अलग करने की प्रक्रिया पर्यावरण पर घातक असर डालती है। मसलन, इस ई-कचरे को जलाने पर जो प्लास्टिक वगैरह जलते हैं उनकी वजह से हवा प्रदूषित होती है। फिर इस कचरे को तेजाब में पकाया जाता है और यह तेजाब आसपास के नदी-नालों में बहा दिया जाता है।

निपटान की समस्याः स्वास्थ्य और पर्यावरण को खतरा

विकसित देश अपने यहाँ के इलेक्ट्रॉनिक कचरे गरीब देशों को बेच रहे हैं। विकासशील देश ई -कचरे का इस्तेमाल तेजाब में डुबोकर या फिर उन्हें जलाकर उनमें से सोना-चांदी, प्लैटिनम और दूसरी धातुएं निकालने के लिए करते हैं। ई -कचरे में कैडमियम, निकेल, क्रोमियम, एंटीमोनी, आर्सेनिक, बेरिलियम और पारा जैसे 38 अलग प्रकार के रासायनिक तत्व शामिल होते हैं। ये सभी पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए घातक हैं।

ई-कचरे के साथ विशिष्ट बात यह है कि इसे जलाकर नष्ट करना या मिट्टी के नीचे दबा देना दोनों खतरनाक है। खुले में कचरे को जलाया जाए तो इससे निकलने वाली विषैली गैसें वायुमंडलीय तापक्रम को असंतुलित करती है और जमींदोज किया जाए तो भूमिगत जल में जहर फैलता है। फिर इससे मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी घटती है। जहां ई-कचरे को जलाकर नष्ट किया जाता है, वहां इस कार्य में लगे मजदूरों को कैंसर, फेफड़े व त्वचा रोग तथा न्यूरोलॉजिकल डिसआर्डर होने का खतरा सामान्य लोगों की तुलना में काफी अधिक होता है।

ई -कचरे का निपटान आसान काम नहीं है क्योंकि इसमें प्लास्टिक और कई तरह की धातुओं से लेकर अन्य पदार्थ रहते हैं। इस कचरे को आग में जलाकर इसमें से आवश्यक धातु आदि निकाली जाती है । इसे जलाने से जहरीला धुंआ निकलता है जो काफी घातक होता है । टीवी व पुराने कम्प्यूटर मॉनिटर में लगी सीआरटी (केथोड रे ट्यूब) को रिसाइकल करना मुश्किल होता है । वे हवा, मिट्टी और भूमिगत जल में मिलकर जहर का काम करती हैं। कैडमियम से फेफडे प्रभावित होते हैं, जबकि कैडमियम के धुएं और धूल के कारण फेफडे व किडनी दोनों को गंभीर नुकसान पहुंचता है । एक कम्प्यूटर में प्राय: 3.8 पौंड सीसा, फासफोरस, केडमियम व पारा जैसे घातक तत्व होते हैं जो जलाए जाने पर सीधे वातावरण में घुलते हैं। इनका अवशेष पर्यावरण के विनाश का कारण बनता है । इन वस्तुओं को सुरक्षित तरीके से फेंकने की व्यवस्था अर्थात रिसाइकलिंग एक जटिल और महंगी प्रक्रिया है।

इलेक्ट्रॉनिक उपकरण सेमीकंडक्टर तकनीक से बनाए जाते हैं। इनमें ऊर्जा स्त्रोतों को लघु से लघुत्तम करने, परम्परागत धातु तांबे के साथ ही सिलीकॉन, डमियम, सीसा, क्रोमियम, पारा व निकल जैसी भारी धातुओं का उपयोग किया जाता है। इनसे निकलने वाले रेडिएशन शरीर के लिए घातक होते हैं। इनके प्रभाव से मानव शरीर के महत्वपूर्ण अंग प्रभावित होते हैं । कैंसर व तंत्रिका व स्नायु तंत्र पर भी असर हो सकता है । सीसा धातु दिमाग एवं किडनी के लिए नुकसानदायक है, तो पारा दिल-दिमाग दोनों के लिए। वहीं क्रोमियम लीवर एवं त्वचा को नुकसान पहुंचाने के साथ कैंसर का भी कारण है। तारों की पीवीसी कोटिंग को जलाने पर जहरीला डाई-ऑक्सिन निकलता है।

ई–कचरा  और भारत

विकासशील देशों को सर्वाधिक सुरक्षित डंपिंग ग्राउंड माने जाने के कारण भारत, चीन और पाकिस्तान सरीखे एशियाई देश ऐसे कचरे के बढते आयात से चिंतित हैं। ऐसे कचरे के आयात पर प्रतिबंध लगाने के लिए भारत में बने कचरा प्रबंधन और निगरानी कानून 1989 को धता बताकर औद्योगिक घरानों ने इसका आयात जारी रखा है । अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण संगठन ''ग्रीनपीस'' के एक अध्ययन के अनुसार 49 देशों से इस तरह का कचरा भारत में आयात होता है। भारत सहित कई अन्य देशों में हजारों की संख्या में महिला, पुरूष व बच्चे इलेक्ट्रॉनिक कचरे के निपटान में लगे हैं। इस कचरे को आग में जलाकर इसमें से आवश्यक धातु आदि निकाली जाती है। इसे जलाने के दौरान जहरीला धुआं निकलता है जो कि काफी घातक होता है ।सरकार के अनुसार 2004 में देश में ई -कचरे की मात्रा एक लाख 46 हजार 800 टन थी जो बंढकर वर्ष 2014 तक 17 लाख टन हो गया।

भारत में पैदा होने वाले कुल ई-कचरे का 70 प्रतिशत देश के 10 राज्यों से आता है। सबसे ज्यादा ई-कचरा पैदा करने वाले राज्य हैं - महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, कर्नाटक, गुजरात, मध्य प्रदेश और पंजाब तथा सबसे ज्यादा ई-कचरा पैदा करने वाले शहर हैं- मुंबई, दिल्ली, बैंगलुरू, चैन्नई, कोलकाता, अहमदाबाद, हैदराबाद, पुणे, सूरत और नागपुर। जबकि इस समय देश में सिर्फ चेन्नई और बंगलुरू में ही ई-कचरा निबटान संयंत्र हैं और वे भी छोटे आकार के। कहीं भी इस काम के लिए बड़े पैमाने पर व्यवस्था नहीं है और यह काम ज्यादातर असंगठित क्षेत्र में होता है। देश में ई-कचरे को अब तक सामान्य कचरे की तरह ही निबटाया जाता रहा है। उन्हें बाकी कचरों के साथ जमीन के नीचे दबा दिया जाता है या फिर जला दिया जाता है।

भारत में कानूनी प्रावधान

देश में ऐसे अवैध विघटन को रोकने के लिए फैक्ट्री अधिनियम-1948, ”पब्लिक लायबलिटी इंश्योरेंस अधिनियम-1991”, हेजर्ड वेस्ट मेनेजमेंट नियम-2003, जैसे तमाम कानून हैं, पर ये प्रभावी साबित नहीं हुए। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने ई-कचरे के समुचित प्रबंधन एवं उससे निपटाने के लिए 'खतरनाक कचरा प्रबंधन, रखरखाव एवं सीमापार यातायात नियम 2008' बनाया। इसमें पहली बार ऐसी व्यवस्था की गई कि खराब हो गए बिजल और बिजली के उपकरणों की रिसाइकलिंग या रिप्रोसेसिंग करने वाली इकाइयों का केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में पंजीकृत होना जरूरी है। -कचरे को खरीदने के लिए नियमानुसार प्रदेश के प्रदूषण बोर्ड द्वारा अनुमति लेने के बाद केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड द्वारा पंजीयन कराना होता है।

एक मई 2012 से ई-कचरा प्रबंधन के नए नियम को लागू किया है, जिसमें विनिर्माताओं के लिए निपटान प्रक्रियाओं का जिक्र किया गया है। इसमें विनिर्माताओं को रिसाइकलिंग, इलेक्ट्रॉनिक्स वस्तुओं में खतरनाक पदार्थों का स्तर घटाने और संग्रहण केंद्र स्थापित करने के लिए जिम्मेदार बनाया गया है। इन सारे नियमों के क्रियान्वयन की सालाना रिपोर्ट केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को वन-पर्यावरण मंत्रालय को सौंपनी होगी। यह रिपोर्ट राज्य प्रदूषण बोर्ड से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर होगी।

वैश्विक प्रयास

इलेक्ट्रॉनिक कचरे संबंधी नियमों का पालन करने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 1992 के बेसल कन्वेंशन के अंतर्गत 158 देशों में सहमति बनी थी जिसमें भारत भी शामिल था। विकसित देशों में इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं के प्रयोग  के बाद खराब होने पर 60 प्रतिशत की रिसाइकलिंग अनिवार्य है। हांगकांग में बैटरियाँ व केथोड रे ट्यूब का आयात नहीं किया जा सकता है। यूरोपीय देशों ने तो 1 जनवरी 2007 से इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के निर्माण के दौरान लैडके उपयोग पर पाबंदी लगा दी है और एशियाई देशों में सिर्फ जापान ने इसका अनुसरण किया है। इसके अलावा दक्षिण कोरिया, जापान व ताइवान ने यह नियम बनाया है कि जो भी कंपनियाँ इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद बनाती है  वे अपने वार्षिक उत्पादन का 75 प्रतिशत रिसाइकल करें। वहीं भारत में अभी तक ई-कचरे के निपटान व रिसाइकलिंग के लिए कोई प्रभावी प्रयास नहीं हुए हैं।

ई-कचरे की मस्याओं को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ ने एक कार्यक्रम शुरू किया है- सॉल्विंग ई-वेस्ट प्रॉब्लम (स्टेप)( Solving the e-waste problem, STEP )। इसके अंतर्गत कोशिश की जा रही है कि ई-कचरे का ढेर कम किया जाए। खासतौर से इलेक्ट्रॉनिक निर्माताओं से कहा जा रहा है कि वे अपने उत्पादों में हानिकारक रसायनों का उपयोग कम से कम करें। इसके अलावा उन्हें इस बात के लिए भी राजी किया जा रहा है कि वे बेकार हो जाने के बाद अपने उत्पाद की रिसाइकलिं भी करें

समाधान

ऐसे खतरे से निपटने के लिए नए नियम और कानून बनाए जाने चाहिए जो यह सुनिश्चित करें कि इस तरह का इलेक्ट्रॉनिक कचरा फेंकने के लिए कठोर मानदंड अपनाए जाएं। सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं तथा मीडिया को स्वयं आगे आकर जन-सामान्य को इस दिशा में जागरुक करने की जरूरत है ताकि विदेशों से आने वाले कबाड़ योग्य वस्तुओं की सही ढंग से स्क्रैपिंग करने के लिए सरकारों को विवश किया जा सके। इतना ही नहीं इलेक्ट्रॉनिक कचरा निपटान को एक निश्चित दिशा देने की जरूरत है ताकि समय रहते पर्यावरण संकट की विभीषिका से बचा जा सके।


Comments