श्रीलंका के नए राष्ट्रपतिः मैथ्रिपाला सिरिसेना
श्रीलंका की राजनीति में एक बड़ा उलटफेर हुआ जब दो बार से राष्ट्रपति रह चुके महिंदा राजपक्षे को छह साल के तीसरे कार्यकाल के चुनाव में हार का सामना करना पड़ा। राजपक्षे के सहयोगी रहे मैथ्रिपाला सिरिसेना ने उन्हें राष्ट्रपति चुनाव में शिकस्त दी। सिरिसेना कुछ समय पहले तक महिंदा राजपक्षे की सरकार में स्वास्थ्य मंत्री थे। उन्होंने नवंबर 2014 में राजपक्षे से नाता तोड़कर विपक्ष के राष्ट्रपति पद के संयुक्त उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा था। उन्हें मुख्य विपक्षी यूनाइटेड नेशनल पार्टी (यूएनपी) और बौद्ध राष्ट्रवादी जेएचयू (हेरीटेज पार्टी) तथा अन्य तमिल एवं मुस्लिम पार्टियों का समर्थन मिला था।
श्रीलंका में राष्ट्रपति चुनाव के दौरान 1.1 करोड़ से अधिक लोगों ने को अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया। चुनाव में 19 उम्मीदवार थे,लेकिन मुख्य मुकाबला दो बार राष्ट्रपति रहे 69 वर्षीय राजपक्षे तथा उनके पूर्व मंत्रिमंडल सहकर्मी सिरीसेना के बीच था। ज्ञातव्य हो कि साल 2005 से सत्ता पर काबिज राजपक्षे ने आसान जीत की उम्मीद में दो साल पहले ही चुनाव करवा दिए थे।
महिंदा राजपक्षे की हार के कारण
Ø  स्वेच्छाचारी व्यवस्था कायम करने का प्रयासः धीरे-धीरे संविधान में बदलाव करके राजपक्षे ने तमाम कार्यकारी शक्तियां अपने हाथ में ले ली। इस तरह कार्यपालिका के वास्तविक प्रमुख प्रधानमंत्री की हैसियत नाम मात्र की रह गई। यही नहीं, राजपक्षे ने राष्ट्रपति के दो कार्यकालों का प्रावधान भी समाप्त कर दिया और तीसरी बार चुनाव मैदान में उतर गए।
Ø  परिवारवाद का आरोपः राजपक्षे के तीनों भाई सत्ता में अहम स्थान रखते थे। एक रक्षा प्रमुख बनाये गये थे, दूसरे श्रीलंका की आर्थिक विकास की जिम्मेदारी देखते थे और तीसरे संसद के स्पीकर थे।
Ø  पार्टी में बगावतः राजपक्षे को अपनी ही पार्टी के बङे नेताओं का साथ इस चुनाव में नहीं मिला। कभी राजपक्षे की सत्‍ता में स्‍वास्‍थ्‍य मंत्री रहे मैथ्रीपाला सिरिसेना ने ही उनको इस चुनाव में हरा दिया।
Ø  अल्‍पसंख्‍यकों का विरोधः श्रीलंका में तमिल और मुसलमान अल्‍पसंख्‍यक का दर्जा रखते हैं जो श्रीलंका की जनसंख्या में 30 प्रतिशत हैं। बहुसंख्‍यक सिंहलियों और देश की तेरह प्रतिशत आबादी वाले अल्पसंख्यक तमिलों के बीच दशकों तक चले संघर्ष की वजह से श्रीलंका में राजनीतिक विभाजन की रेखा बड़ी गहरी है। तमिलों को लगता है कि सिंहलियों और बौद्धों के वर्चस्व वाली सत्ता में उन्हें दरकिनार कर दिया गया है,जबकि मुसलमानों को अतिवादी बौद्ध भिक्षुओं के हमलों का सामना करना पड़ता रहा है। तमिलों की शिकायत थी कि उत्तरी इलाके में श्रीलंकाई फौज की अभी भी भारी मौजूदगी है और स्थानीय स्तर पर राजनीतिक स्वायत्तता नहीं है।
Ø  विपक्षी द्वारा प्रशासन और कोर्ट को आजादी देने का वादाः विपक्षी दलों के नेता सिरिसेना ने कोर्ट, पुलिस और प्रशासन की आजादी की बात की।
मैथ्रिपाला सिरिसेना की नीतियां
चुनाव के प्रचार अभियान के दौरान सिरिसेना ने निर्वाचित होने के सौ दिन के भीतर राष्ट्रपति की शक्तियां कम करने, विवादित 18वां संविधान संशोधन हटाने, 17वां संशोधन बहाल करने और यूएनपी नेता रानिल विक्रमसिंघे को प्रधानमंत्री नियुक्त करने का वादा किया था।
चुनाव जीतने के बाद उन्होंने कहा कि वह समानता भरे समाज का निर्माण करेंगे और सुशासन देंगे। उन्होंने वादा किया कि वे सभी कार्यकारी शक्तियां प्रधानमंत्री को हस्तांतरित कर देंगे। मैथ्रिपाला सिरिसेना आर्थिक नजरिये से मुक्त बाजार के समर्थक माने जाते हैं और निवेश को प्राथमिकता देने वाली नीतियों के पक्षधर रहे हैं, लेकिन अल्पसंख्यकों के अधिकार और श्रीलंका में चल रहे जातीय संघर्ष के बारे में उनकी अब तक कोई स्पष्ट राय नहीं दिखी है। चुनाव प्रचार के दौरान सिरीसेना ने स्पष्ट कर दिया था वह राष्ट्रपति चुनाव में समर्थन मिलने के बदले तमिल कट्टरपंथियों के प्रति नरमी नहीं बरतेंगे और ना ही उत्तरी क्षेत्र से सेना वापस बुलाएंगे।
श्रीलंका - भारतः नए संबंधों की शुरुआत
श्रीलंका की राजनीतिक स्थिति भारत के लिए भी काफी महत्व रखती है। पिछले कुछ समय से श्रीलंका भारत को घेरने की चीनी कूटनीति का हिस्सा बन गया था। महिंदा राजपक्षे चीन से अपनी 'अभिन्न मित्रता' की बात करते थे,लेकिन सिरिसेना ने कहा है कि वह चीन के साथ किए गए पुराने समझौतों की समीक्षा करेंगे। चीन और श्रीलंका के बीच संबंधों में कोई बड़ा परिवर्तन आए या न आए, लेकिन उन मुद्दों में ज़रूर नरमी आएगी, जिन्हें लेकर भारत ज़्यादा चिंतित रहा है। श्रीलंका में रह रहे तमिलों के अधिकारों के मामले पर सिरिसेना का रवैया थोड़ा बेहतर है। हालाँकि सिरिसेना ने कोई बड़ा वादा नहीं किया है, लेकिन उन्हें तमिल लोगों ने भारी वोट दिए हैं जो सहयोगात्मक संबंधों के संकेत देते हैं।


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