जलवायु परिवर्तन पर लीमा दस्तावेज और भारत

सभी देश पर्यावरण सुरक्षा का एकसमान लाभ उठा सकें और गरीब देशों को पर्यावरण सुरक्षा के लिए वित्तीय मदद मिलेयह नए अंतरराष्ट्रीय जलवायु समझौते का लक्ष्य है।
संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन ढांचागत संधि के सदस्य देशों का 20वां सम्मेलन(कोप-20) और क्योटो प्रोटोकॉल के सदस्य देशों का 10वां सम्मलेन 14 दिसंबर 2014 को दक्षिण अमेरिकी राष्ट्र पेरू की राजधानी लीमा में समाप्त हुआ। पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार 12 दिवसीय सम्मेलन 12 दिसंबर को समाप्त होना थालेकिन इसमें होने वाले समझौतों पर सहमति न बनने के कारण इसे और आगे बढ़ा दिया गया दुनिया भर के प्रतिनिधियों की कोशिश थी कि धरती का तापमान बढ़ाने वाली गैसों के वैश्विक उत्सर्जन को नियंत्रण में करने वाले समझौते पर सहमति बन सके। वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में कटौती के राष्ट्रीय संकल्पों के लिए आम सहमति वाला मसौदा 14 दिसंबर,2014 को 190 देशों के प्रतिनिधियों द्वारा स्वीकार कर लिया गया। इस मसौदे को 'जलवायु कार्रवाई का लीमा आह्वान' का नाम दिया गया है ।
इससे अब जलवायु परिर्वतन से निपटने के मुद्दे पर साल 2015 में पेरिस में होने वाले कोप-21 में नए महत्वाकांक्षी एवं बाध्यकारी करार पर हस्ताक्षर का मार्ग प्रशस्त हो गया है। यह पहला मौका है जब उत्सर्जन के मामले में अमेरिका को पीछे छोड़ चुका चीनभारतब्राजील और उभरती हुई अन्य अर्थव्यवस्थाओं ने उत्सर्जन कटौती पर सहमति दी है। इस सम्मेलन में 'हरित जलवायु कोषको बढ़ाकर लगभग 10 अरब अमेरिकी डॉलर किए जाने का नया संकल्प लिया गया। इस कोष के माध्यम से विकसित देश विकासशील देशों को आर्थिक मदद उपलब्ध कराएंगे। ज्ञातव्य हो कि इस कोष की स्थापना प्रस्तावित 100 अरब डॉलर के बजट के साथ की गई थी।
मसौदे के अनुसार, विभिन्न देशों की सरकारों को वैश्विक समझौते का आधार तैयार करने के लिए ग्रीन हाउस गैसों में कटौती की अपनी राष्ट्रीय योजना 31 मार्च 2015 को आधार तिथि मानकर पेश करनी होगी। हालांकि, अधिकांश कठोर निर्णय वर्ष 2015 में पेरिस में होने वाली शिखर बैठक के लिए टाल दिए गए हैं। उस शिखर बैठक में होने वाले करार को वर्ष 2020 से प्रभावी होना है। करार को 2020 से क्योटो संधि की जगह पर लागू किया जाएगा। मंजूर किया गया मसौदा तीन प्रमुख पहलुओं- विज्ञाननीतिगत प्रक्रिया एवं कार्रवाई के बीच की खाई को पाटने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है। मसौदे में भारत की चिंताओं का भी ध्यान रखा गया है।  भारत और अन्य विकासशील देशों की बात मानते हुए मसौदे में अतिरिक्त पैरा जोड़ा गया है कि जलवायु संबंधी कदमों का आर्थिक बोझ उठाने की क्षमता के आधार पर देशों का वर्गीकरण किया जाएगा। इसमें विभिन्न देशों की राष्ट्रीय परिस्थितियों को भी ध्यान में रखने की बात कही गई है। इसमें कहा गया है कि पेरिस 2015 करार 'भिन्न राष्ट्रीय परिस्थितियों के आलोक में साझीलेकिन विभेदीकृत जिम्मेदारियां एवं संबंधित क्षमता के उसूलको प्रतिबिंबित करने वाला होना चाहिए।
पर्यावरण समूहों ने समझौते को कमजोर और निष्प्रभावी करार देते हुए कहा कि इससे अंतरराष्ट्रीय जलवायु नियम-कायदे कमजोर होंगे। मसौदे में सिर्फ इस बात का जिक्र किया गया कि 2015 के दिसंबर में पेरिस में होने वाले सम्मेलन से एक महीने पहले सभी संकल्पों की समीक्षा की जाएगी ताकि जलवायु परिवर्तन पर उनके संयुक्त प्रभाव का आकलन किया जा सके।
मतभेद के बिंदु
पहला मतभेद दिसंबर 2015 तक मार्गदर्शक वार्ता के ड्राफ्ट ब्लूप्रिंट को लेकर था। यह ऐसा दस्तावेज है जो बढ़ता ही चला जा रहा है क्योंकि देश ज्यादा से ज्यादा सुझाव और आपत्तियां इसमें जोड़ते जा रहे हैं। दूसरा मतभेद उन सूचनाओं के मानकीकरण के प्रारूप पर है जिसके तहत कार्बन कटौती के लिए अलग-अलग देश अपनी प्रतिज्ञा देंगे। यही भाग 2015 की संधि का केंद्र है। दुनिया भर के प्रतिनिधियों की कोशिश थी कि धरती का तापमान बढ़ाने वाली गैसों के वैश्विक उत्सर्जन को नियंत्रण में करने वाले समझौते पर सहमति बन सके।

भारतीय दृष्टिकोण
लीमा जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में देश मोटे तौर पर दो धड़ों में बंटे थे। एक ओर विकसित देशों के धड़े में यूरोपीय संघ के देश और जापान खुलकर अपना पक्ष रख रहे थेवहीं दूसरी ओर ब्राजीलदक्षिण अफ्रीकाभारत और चीन का बेसिक के नाम से यहां अपना अलग मंच था। बेसिक देशों ने जलवायु परिवर्तन समझौते के मसौदे पर चर्चा के लिए इस मंच के तहत नियमित बैठकें करने का फैसला लिया। अगले साल पेरिस में हस्ताक्षर किए जाने वाले समझौते का अंतिम मसौदा तय करने के लिए अब ये देश साथ मिलकर काम करेंगे। बेसिक देशों का आरोप था कि अमीर देश वैश्विक ग्लोबल वार्मिंग से मुकाबले की अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ रहे हैं। दूसरी ओर यूरोपीय संघ और जापान जैसे विकसित देश जलवायु परिवर्तन समझौते को केवल न्यूनीकरण की व्यवस्था पर केंद्रित रखने पर जोर दे रहे हैं।
भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व कर रहे पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा कि बेसिक देश इच्छित राष्ट्र स्तरीय तयशुदा योगदान (इंटेंडेड नेशनली डिटरमाइंड कंट्रीब्यूशन,INDC) को संरचनात्मक स्तर पर और ज्यादा अनुकूलन आधारित बनाने पर सहमत हुए हैं। अनुकूलन की व्यवस्था के तहत जलवायु परिवर्तन के कारण सामने आने वाली स्थितियों का लाभ उठाते हुए नई प्रणालियों के विकास पर जोर दिया जाएगाताकि इन प्रणालियों के विकास से होने वाले लाभ के जरिये जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान को बेअसर किया जा सके। आईएनडीसी में शमन (मिटिगेशन)अनुकूलनवित्तपोषणप्रौद्योगिकी हस्तांतरण और क्षमता निर्माणसभी तत्वों के समावेश को रेखांकित किया गया है। प्रकाश जावड़ेकर ने स्पष्ट किया कि आइएनडीसी के मसौदों पर वार्ता के दौरान भारत इनकी समीक्षा के पक्ष में नहीं है क्योंकि देशों को अपनी जलवायु परिवर्तन कार्ययोजना संबंधी जरूरतों को निर्धारित करने की आंतरिक स्वतंत्रता है। हालांकि,मसौदे में आइएनडीसी की किसी अनुमानित समीक्षा प्रक्रिया के बारे में कोई जिक्र नहीं है। इसे देशों पर ही छोड़ दिया गया है।
अमेरिका, चीन और यूरोपीय संघ की पहल
विश्व भर में सबसे ज्यादा ग्रीनहाउस गैस पैदा करने वाले अमेरिका, चीन और यूरोपीय संघ ने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती करने की घोषणा कर उम्मीद भरा माहौल बनाने में योगदान दिया है। कुछ समय पहले अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने पर्यावरण रक्षा के नए लक्ष्य पेश किए। अमेरिका 2005 से 2025 के बीच जहरीली गैसों के उत्सर्जन में 27 प्रतिशत की कमी करेगा, तो चीन ने 2030 तक लगातार कम कार्बन डायऑक्साइड के उत्सर्जन का वादा किया है। अहम बात यह है कि संयुक्त राष्ट्र वार्ताओं में बाधा डाल रहे इन देशों ने अब पहल करने का फैसला लिया है।

जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र का सम्मेलन
पेरू की राजधानी लीमा में शुरू हुआ यह सम्मेलन जलवायु परिवर्तन पर 1992 में गठित संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन मसौदे (1992 United Nations Framework Convention on Climate Change,UNFCCC) को लागू करने के उद्देश्य से आयोजित होने वाला बीसवाँ वार्षिक सम्मेलन(COP-20 ) है। वहीं कार्बन उत्सर्जन से सम्बन्धित 1997 की क्योटो संधि (Kyoto Protocol) को लागू कराने के लिए शामिल पक्षों का यह दसवाँ सत्र (CMP-10) है। COP-20 को आयोजित किए जाने का मुख्य उद्देश्य वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने के महात्वाकांक्षी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए एक बाध्यकारी संधि को तैयार करने हेतु अंतिम सहमति तक पहुँचना था, ताकि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन घट सके और 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल को नए मसौदे से बदला जा सके।COP-1 का आयोजन बर्लिन(जर्मनी) में किया गया था।  






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